एक शिक्षक के विचार, प्रयोग और अनुभव
►मोहम्मद सगीर खान
एक शिक्षक के रूप में यह जानना जरूरी समझता हूँ कि बच्चे क्या सोचते हैं, कैसे सोचते हैं और उनकी मदद कैसे की जा सकती है? जब कोई बच्चा स्कूल में आता है तो कोरा कागज नहीं होता है और न ही वह खाली है जिसे हम ज्ञान से भर दें। बल्कि वह एक समझ के साथ स्कूल आता है। मुझे ऐसी विधि अपनानी चाहिए जिसमें बच्चों को सीखने के अवसर अधिक मिलें। इसमें मुझे सफलता तब मिल सकती है जब मैं बच्चों को समझूँ, उनकी रूचि और जरूरत को समझूँ। उनके परिवेश, आर्थिक और सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए उन्हें अधिक से अधिक सीखने के अवसर उपलब्ध करा सकूँ। साथ ही उनके कौशल और जिज्ञासाओं को समझकर ऐसी गतिविधियाँ तैयार करूँ जिन्हें बच्चे पढ़ाई का बोझ न समझकर खेल-खेल में समझ आधारित शिक्षा ग्रहण करने के अवसर प्राप्त करें।
मैं चाहता हूँ कि बच्चों को ऐसे अवसर प्रदान करूँ जिससे बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा हो। वे किसी भी बात को तर्क की कसौटी पर कसने के बाद ही उसे स्वीकार करें। वे अपने समाज की मिथ्या धारणाओं का परित्याग करें। मैं चाहता हूँ कि शिक्षा ऐसी हो जो अच्छे नागरिक तैयार करे, जो समाज को नए नजरिए से देखे। वे अपने साथियों, अभिभावकों, अध्यापकों के सामने अपनी जिज्ञासा रखें, उन्हें समझें और तर्क के आधार पर अपनी समझ बनाएँ। वे शिक्षा इसलिए ग्रहण नहीं कर रहे हैं कि उन्हें नौकरी मिले बल्कि वे शिक्षा इसलिए ग्रहण करें कि उनमें सामाजिक सरोकार का गठन हो। वे काम को छोटा या बड़ा न समझें।
शिक्षक और बच्चों का रिश्ता
मैंने महसूस किया कि जब बच्चे स्कूल आते हैं तो उसके मन में डर होता है कि स्कूल में अध्यापक जी मारेंगे और वे बोलने में संकोच करते हैं। अतः मैंने यह तय किया कि आते ही मैं बच्चों को अक्षर ज्ञान की घुट्टी न पिलाकर पहले उनकी शंका और झिझक दूर करूँ।
ऐसा माहौल तैयार किया जाए कि बच्चे जब स्कूल आएँ तो उन्हें अजनबीपन नहीं लगे। हम उनके साथ उनके परिवार, पड़ोस, गाँव के बारे में बातें करें, उनके अनुभव सुनें, उनकी बातों को आगे बढ़ाने में सहयोग करें। हम स्वयं को उनके स्तर तक ले जाकर ऐसा रिश्ता बनाएँ कि वो हमें अध्यापक न समझकर अपना दोस्त समझें और बिना झिझक अपनी बात हमसे कह सकें। यह नया रिश्ता आने वाले समय में कक्षा में होने वाली गतिविधियों के दौरान साथ-साथ काम करने के लिए एक मजबूत आधार दे सके। घर में बच्चे का यह रिश्ता स्वाभाविक रूप से माँ-बाप के साथ बन जाता है। इसलिए एक शिक्षक को इस आपसी रिश्ते और विश्वास को बनाने और बढ़ावा देने का काम एक जिम्मेदारी के साथ करना चाहिए।
तो मैं भी शुरुआत इसी तरह करता हूँ। उनका नाम, घर, अड़ोस-पड़ोस के बारे में बातें करता हूँ। उत्साह वर्धन करता हूँ। स्वयं को बच्चों के स्तर तक ले जाकर उनसे सम्वाद स्थापित करता हूँ। मैं कहता हूँ, कि अच्छा बच्चों मोर कैसे बोलता है? बच्चे कहते हैं म्याऊँ-म्याऊँ। फिर बकरी की, फिर तोते की आवाज निकालने के लिए कहता हूँ और कभी कहता हूँ - अरे सारे गाँव के तोते यहीं आ गए क्या? बच्चे हँसते हैं। उनसे शेर की आवाज निकालने के लिए कहता हूँ। जब बच्चे शेर की आवाज निकालते हैं और मैं डरकर गिरने का अभिनय करता हूँ, तो सारे बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं। इसमें बच्चों के साथ मुझे भी आनन्द आता है। इस सम्वाद में मैं उनकी भाषा बोलने का प्रयास करता हूँ ताकि मैं उन्हें समझ सकूँ और वे मुझे। मैं उनकी कल्पनाशक्ति के पंख लगाने के लिए और कुछ हिन्दी शब्दों को सिखाने के लिए कविताओं, गीतों और दोहों के माध्यम से उनकी भाषा का सम्मान करते हुए हिन्दी भाषा के शब्दों का उच्चारण करवाकर खेल-खेल में हिन्दी भाषा से जुड़ाव करने का प्रयास करता हूँ।
पढ़ने का मनोविज्ञान
मैं समझता हूँ, सभी बच्चे एक से नहीं होते। कुछ बच्चे स्वयं कक्षा के अन्दर या बाहर सीख जाते हैं, कुछ जल्दी सीखते हैं, कुछ देर से। लेकिन सभी बच्चे तब पढ़ते हैं , जब वे इसके लिए तैयार हों। पढ़ने का तरीका भी सभी का अलग-अलग होता है। कुछ कविताओं को याद करके पढ़ना सीखते हैं, कुछ पढ़ा गया सुनकर पढ़ने लगते हैं, कुछ दीवारों पर लिखे नारों से पढ़ना सीख जाते हैं।
कविता सत्र
जब मैं कक्षा में कविता सत्र का प्रारम्भ करता हूँ, तो पाता हूँ कि बच्चों में बहुत जोश और उत्साह होता है। हर बच्चा अपनी कविता सुनाने के लिए आतुर, वो भी पूर्ण हाव-भाव के साथ। मैं देखता हूँ कि कोई भी बच्चा कोई एक कविता से बँधा नहीं रहता है। वह हर दिन नई कविता बोलना चाहता है। मैं स्वतंत्र रूप से बच्चों को अपनी कविता बोलने और अगले दिन नई कविता बोलने के लिए कहकर उन्हें नई-नई कविताएँ याद करने का अवसर देता हूँ। जब बच्चे घर जाकर उस अन्दाज में कविताएँ सुनाते हैं तो उनके अभिभावक अभिभूत हो उठते हैं। बीच-बीच में कविताओं से सम्बन्धित प्रश्नों के माध्यम से चर्चा करके उन्हें उनकी समझ को विस्तार देने और खेल-खेल में प्रश्नों के उत्तर देने की कला सीखने के अवसर प्रदान करता हूँ।
कविता बुलवाना एक अनौपचारिक कार्य है, लेकिन इस अनौपचारिक कार्य के माध्यम से बच्चों को अपनी मातृभाषा के साथ-साथ हिन्दी की तरफ ले जाना और प्रश्नोत्तर व चर्चा के द्वारा समझ विकसित कर बच्चों में सृजनात्मकता की क्षमता का विकास आसानी से किया जा सकता है। इसका प्रभाव मैं अनुभव कर चुका हूँ। मैं चाहूँगा कि मेरे शिक्षक साथी भी इनका प्रयोग करें। मैंने महसूस किया कि बच्चे हिन्दी के साथ अँग्रेजी कविता भी उसी उत्साह से सीखते हैं। इनके माध्यम से हम अँग्रेजी शब्दों का सही उच्चारण करने का अवसर प्रदान कर आसानी से अँग्रेजी को मातृभाषा तथा हिन्दी की तरह समझने का अवसर प्रदान कर सकते हैं।
चित्रकला
मैंने अनुभव किया कि जब बच्चों को ज्यादातर रटा-रटाया लिखना होता है, इसलिए उन्हें काफी दिक्कत होती है, इस प्रक्रिया में लिखने के प्रति उनका आत्म-विश्वास एकदम काफूर हो जाता है। इसलिए मैंने सोचा की बच्चों को लिखना सिखाने के प्रति उत्साह जागृत करने के लिए ऐसी विधि अपनाई जाए जिसमें बच्चे रोचकता और रचनात्मकता के साथ लिखने के प्रति आकर्षित हों। मैंने पाया कि लिखना सिखाने हेतु पहली कक्षा की पुस्तक में आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींचने के लिए निर्देशित किया गया है। अतः एक दिन मेरे दिमाग में आया कि क्यों न बच्चों से चित्र बनवाए जाएँ। मैंने आरम्भ में बच्चों को अपनी पसन्द के अनुसार चित्र बनाने के लिए कहा। मैंने देखा कि बच्चे शुरू में झिझक रहे थे।
लेकिन मैंने स्वयं बोर्ड पर तीन-चार चित्र (बाल्टी, मछली, टमाटर, आम, सेब, पेड, फूल, मोर आदि) एक-एक करके बनाए और फिर बच्चों से बनाने के लिए कहा । फिर क्या था, बच्चे अपनी स्लेटों पर चित्र बनाकर दिखाने लगे। मैंने उनका उत्साह बढ़ाया, तो वे पूरी तल्लीनता के साथ चित्र बनाने लगे और फिर उनका उत्साह इतना बढ़ गया कि ज्यों ही प्रार्थना समाप्त होती, एक साथ पाँच-पाँच के समूह में चाक के टुकड़े लेकर चित्र बनाने लगते। मैंने पाया कि वे घर पर नए-नए चित्र बनाने का प्रयास करते और दूसरे दिन बोर्ड पर आकर अपनी आकृति उकेरकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते। मैं उन्हें उत्साहित करता और इस तरह उनका हाथ लिखने के लिए तैयार हो गया। मैंने सबसे पहले क शब्द लिखना सिखाया, वो भी रोचक तरीके से, खेल-खेल में।
बच्चे बने अध्यापक
कहते हैं संगत का असर मन पर पड़ता है। लगातार एक सी संगत में बैठने पर व्यक्ति का व्यक्तित्व भी उसी तरह का हो जाता है। मन को संस्कारित करने के लिए अच्छी चर्चाओं में और अच्छी संगत में भाग लेना जरूरी है। इसी तरह का प्रभाव स्वैच्छिक शिक्षक मंच (वी.टी.एफ.) की मीटिंग में मुझ पर हुआ। नवाचार करने के विचार मन में उपजे।
मैं इस विद्यालय में सत्र 2008-09 से कक्षा एक से आठ तक, फिर सत्र 2011-12 में कक्षा एक से दस तक अँग्रेजी पढ़ाता था। इसमें मैं रिसेज पीरियड में भी कक्षाएँ लेता था। सत्र 2012-13 में मुझे प्राइमरी अध्यापक के रूप में हिन्दी व अँग्रेजी कक्षाओं की कक्षा 1 से 5 तक शिक्षण करवाने की जिम्मेदारी दी गई।
मैं ऐसी विधियों पर विचार करने लगा जो बच्चों को पढ़ना लिखना सिखाने हेतु उन्हें प्रेरित करें। मैं 2006 से एल.जी.पी. कार्यक्रम से सक्रिय रूप से जुड़ा रहा हूँ और 2009 से स्वैच्छिक शिक्षक मंच का भी सक्रिय सदस्य रहा हूँ। वहाँ हम चर्चा करते हैं कि बच्चों को अधिक से अधिक स्वयं सीखने के अवसर उपलब्ध कराने चाहिए, ताकि बच्चा अपनी स्वयं की योग्यता जो उसमें पहले से विद्यमान है, का समुचित उपयोग कर लगन और आत्म विश्वास के साथ रोजाना कुछ न कुछ नया सीखता चला जाए।
एक दिन मेरे दिमाग में आया कि क्यों न इन्हें अध्यापक की भूमिका में कार्य करने का अवसर प्रदान करूँ। मैंने तीसरी कक्षा को पहली कक्षा दी। तीसरी कक्षा के विद्यार्थियों से कहा कि आप अध्यापक हैं। कल आपको पहली कक्षा को पहला पाठ पढ़ाना है। मैंने देखा कि खेल घण्टी में तीसरी कक्षा के कुछ विघार्थी उस पहले पाठ को तल्लीनता के साथ पढ़ रहे थे। आपस में एक-दूसरे को पूछ रहे थे। मैंने उनसे कह दिया था कि अगर आपको नहीं आए तो आप मुझसे निःसंकोच पूछ सकते हैं। इसलिए वो मुझसे पूछने आ रहे थे। अगले दिन मैंने उन्हें एक गुरु और एक चेला के रूप में दो दो लोगों को एक साथ बैठकर पढ़ने का अवसर दिया। मैंने देखा कि कक्षा तीन के बच्चे पहली कक्षा को पढ़ाने में व्यस्त थे और बच्चों को बार-बार याद करवा रहे थे। मैं इस गतिविधि पर नजर रख रहा था और जहाँ कहीं कोई बच्चा पढ़ाने में अटकता मैं उसको बताकर उसकी झिझक दूर कर रहा था।
इस तरह दो-तीन दिन तक चला। फिर मैंने उनसे सुनाने को कहा। मैं बच्चों के पास बारी-बारी से जाता और सुनता और मैंने देखा कि तीसरी कक्षा के बच्चे बड़ी लगन के साथ अपने कार्य में व्यस्त थे। इस तरह एक महीने में तीसरी कक्षा के बच्चों ने पहली कक्षा के बच्चों को पूरे पाठ पढ़ा दिए। मैंने देखा कि तीसरी कक्षा के बच्चे अटक-अटक कर हिज्जे के साथ पढ़ने लग गए थे।
फिर मैंने उन्हें दूसरी का पहला भाग और दूसरा भाग दिया। किताबों में से छोटे-छोटे प्रश्न पूछकर उनको जवाब देने के लिए प्रेरित भी करता जा रहा था। इस तरह वे सहज होकर प्रश्नों के उत्तर देना भी सीख रहे थे। साथ ही जब दूसरी कक्षा के बच्चे, तीसरी से एक पाठ कम्लीट कर लेते तो दूसरी के बच्चों को पहली कक्षा के बच्चों को पढ़ाने के लिए कहता। इसके सार्थक परिणाम आए। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, क्योंकि अक्टूबर के अन्त तक तीसरी व दूसरी के लगभग सभी बच्चे पढ़ना सीख चुके थे। मुझे यह परिणाम दिसम्बर तक मिलने की उम्मीद थी। लेकिन मेरी आशा के विपरीत वे अक्टूबर में ही किताब पढ़ने लगे थे। मुझे इस विधि के सफल होने का आभास तब हो गया था जब बच्चे पोषाहार खाते ही अहाते में आ बैठते, जहाँ मैं बैठता था और पुस्तक में शब्द के हिज्जे करने लगते और नहीं आने पर एक-दूसरे से या मुझसे पूछते। इस तरह मैंने पाया कि -
हर मुश्किल का हल होता है,
आज नहीं तो कल होता है ।
मोहम्मद सगीर खान , राजकीय प्राथमिक विद्यालय, सौलतपुरा , उनियारा, टोंक (राजस्थान)
टिप्पणियाँ
बहुत अच्छा। दरअसल शिक्षक वही
बहुत अच्छा। दरअसल शिक्षक वही है जो बच्चे में हर तरह से वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा कर सके। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि ऐसे अध्यापकों की कमी नहीं है जो रोज टीका-तिलक लगाकर आते हैं। पूजा-पाठ-जाति-धर्म को सर्वोपरि मानते हैं। विज्ञान का शिक्षक सांप के मारे जाने पर उसकी आंख में चित्र अंकित होने की बात करता है। कला का अध्यापक आम बनाना नहीं जानता। वो बच्चों में पारंपरिक रंगों को हूबहू उतारने को कहता है। भाषा का शिक्षक खुद साहित्यिक गतिविधियों से दूर है। गणित का शिक्षक आज भी रटने की आदत को सर्वोपरि मानता है। आम जीवन में गणित के व्यावहारिक प्रयोग वह स्वयं नहीं करता। लेकिन अच्छा ‘अच्छा’ ही होता है। दीपक की लौ आकार में भले ही छोटी हो, लेकिन उसकी चमक और रोशनी दूर तक जाती ही है। नमन आपको और बधाई भी।
आपके प्रयास सराहनीय हैं। एक
आपके प्रयास सराहनीय हैं। एक अच्छा शिक्षक वही है जिसके पास पूछने आने के लिए छात्र उसी प्रकार तत्पर रहें जिस प्रकार माँ की गोद में जाने के लिए रहते हैं। बड़ी कक्षाओं की अपेक्षा प्राथमिक कक्षाओं को पढ़ाना अधिक मुश्किल होता है। मेरे विचार से अध्यापक अपनी कक्षा रूपी प्रयोगशाला का स्वयं वैज्ञानिक होता है जो अपने छात्रों को शिक्षित करने के लिए नव नव प्रयोग करता है। आपका दृष्टिकोण व्यापक है आपके प्रयास सार्थक हैं जो अन्य अध्यापकों को भी प्रेरित कर सकते हैं इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
बहुत अच्छा
बहुत अच्छा
वास्तव में मोहमद सगीर खान जी
वास्तव में मोहमद सगीर खान जी ने एक सच्चे शिक्षक के अनुभवों को अपने शब्दों में ब्यान किया है।उनके अनुभव में एक समर्पित शिक्षक की सभी भावनाओं का समावेश है। हमे चाहिए की हमसभी अध्यापक अपने स्तर पर शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों के अनुसार शिक्षा प्रदान करें और शिक्षक होने का उत्तरदायित्व अदा करें।